कल्पना की कल्पना (तृतीय खण्ड)


 पिछले पटकथा में कल्पना के लिए मेरे ह्रदय में प्रेम पुष्प अंकुरित होने की कथा का विवरण था। अब बारी थी मित्रों को ये बताने कि कैसे हमारे मध्य  प्रेम की बेलें पल्लवित हुईं और लिपटतीं गईं हम दोनों से हीं। वो कहते हैं ना प्रेम आदमी को दीवाना सा बना देता है और उसकी हरकतें सामान्य जिंदगी में पागलपन की सीमा को छूने के लिए विकल रहती हैं। तो मैंने भी जो दूसरी कहानी सुनाई वो कुछ ऐसा ही थी जिसे उस कालखंड में पागलपन ही करार दिया जाता। पागलपन से मेरा मतलब यहाँ ये है कि ऐसी हरकते करना जो दोस्ती से कुछ ज्यादा गरिष्ठ और प्रगाढ़ प्रतीत हो सभी को 😅। तो आता हूँ कहानी पे। 
        "बात तब की है जब हम दोनों 7 वीं कक्षा में थे। हिंदी की कक्षा चल रही थी और उस दिन हमें हमारे प्रधानाचार्य जी हीं पढ़ा रहे थे। " इतने में मेरे एक मित्र ने टोका कि हिंदी की वेला पढ़ने के लिए होती थी तुम्हारे यहाँ या ये इश्क़ लड़ाने के लिए ? पिछली कहानी भी हिंदी की ही घंटी में हुई थी। फिर मैंने उसे हल्की झिड़की देते हुए बताया कि केवल हिंदी की वेला ही ऐसी घंटी होती थी जब हम छात्रगण भी शामिल होते थे, वर्ना भौतिकी में पहली बार S = u.t + 1/2 a.t^2 पढ़ते हुए शायद ही किसी में प्यार-व्यार की भावना सिर उठाने की हिम्मत कर पाती हो। हालाँकि ७ वीं कक्षा में ये पढ़ाया नहीं जाता लेकिन उस समय ना तो मुझे ध्यान रहा और ना हीं किसी मित्र ने गौर करा। खैर वापस आते हैं अपनी कहानी पे। "हिंदी में एक कविता पढाई गई जिसका शीर्षक था 'नदी को रास्ता किसने दिखाया'।  और उस कविता के अंत में विचार मंथन के लिए एक सामूहिक प्रयोग करने को कहा गया था जिसके अंतर्गत सभी विद्यार्थी इस बात पर वाद-विवाद करते कि नदी ने अपना रास्ता स्वयं तैयार करा या भूमि ने उसे रास्ता दिया। अब चूंकि कविता में ये उद्धृत था कि नदी ने अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करा है तो सभी नदी के तरफ हो गए और मैं ही अकेला रह गया भूमि के लिए भूमि के पक्ष को व्यक्त करने के लिए भूमि का पक्षकार। मैं अकेला और विपक्ष में चालीस लोग थे और ये नाइंसाफी कल्पना से ना देखी गई और पल भर के बाद मेरे साथ, मेरे बगल में खड़ी थी एक भीनी सी महक, एक मीठा सा एहसास और एक प्यारी सी मुस्कुराहट। पहली बार था ऐसा जब कोई खड़ा था निर्विकार, निर्भीकता को अपने मुस्कान से बिखेरते हुए मेरे साथ ये जानते हुए भी कि वाद विवाद में संख्या बल में हम नगण्य थे विपक्षी के सामने और हमारे हार जाने की प्रायिकता बहुत ज्यादा थी। प्रारम्भ में जो शिकन उभर आई थी मेरे चेहरे पे वो तत्क्षण उसके आने से शांत हो गई। इस अद्भुत अनुभूति का साक्षी बन रहा था मेरा मन कि कैसे किसी की उपस्थिति मात्र ही पूरी मनोदशा का ही कायाकल्प कर डालती है और उसका सहज समर्थन सबसे भिड़ने का साहस और विजय के लिए आश्वस्त कर जाता है। कल्पना अब थोड़ी सी गंभीर हो गई थी और पूरी कक्षा को ऐसे देख रही थी जैसे एक सिंहनी देखती है मृगों के झुण्ड को उन्हें अपना शिकार बनाने से पहले। फिर उसने मेरी तरफ देखा और वही एक प्यारी सी मुस्कान उसके होठों पे बिखर गई थी और शायद मुझे आश्वश्त कर रही थी कि हमारी युगल शक्ति अजेय है। फिर मैंने वाद-विवाद की शुरुआत कुछ इन शब्दों में शुरू किया: 'नदी भूमि पे ही प्रवाहित होती है और जो भी साथ में हो उसका प्रभाव पड़ता ही है हमारे जिंदगी के रास्तों के निर्माण के क्रम में उसकी दशा और दिशा निर्धारित करने में। कहा भी गया है काजल की कोठरी में कैसों हीं सयानो जाये एक लीक काजल की लागि है पे लागि है '। और  फिर इसी के साथ प्राम्भ हो गया था वाद-विवाद का संग्राम। तर्कों और उनके प्रत्युत्तरों की झड़ी लग गई थी हमारे चहुंओर परन्तु हम अडिग थे, वो अडिग थी। ऐसा प्रतीत होता था कि हमारे दिमाग आपस में एकाकार हो गए थे यिन यांग की तरह जो एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक दुसरे के पूरक होते हैं। अब भला इतने पर भी उससे प्यार की प्रगाढ़ता कैसे ना बढ़ती।" इतना बता कर मैं चुप हुआ तो मित्र मंडली के एक मित्र ने कहा कि इसमें कोई प्यार व्यार का एंगल  नहीं दिखता। कोई भी अगर अच्छा दोस्त होता तो ऐसा ही कुछ करता। इसमें पागलपन जैसा कुछ था ही नहीं ये तो बस एक दोस्ती की मिसाल थी। तुम कुछ दूसरी घटना सुनाओ जिसमे केवल तुम हो और वो हो और कक्षा की कोई घंटी-वंटी की बात ना हो।
गोरखनाथ मंदिर में तालाब के किनारे बैठे हुए मित्रमंडली में मैंने जो अगली कहानी सुनाई थी वो आधारित थी सुमन सौरभ पत्रिका के एक विशेष अंक (प्रेम विशेषांक) के तथ्यों पे। उसमें एक पन्ने पे छपा था कि जब आपसे कोई प्यार करने  लग जाता है तो वो आपके हाव-भाव, बात करने के तरीके और आदतों को अनजाने में आत्मसात कर लेता है।

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