मेरा अरेराज



पुरे देश में कोरोना अपनी टांगें पसारने को तत्पर है और उससे बचने के लिए सम्पूर्ण भारत हीं सम्पूर्ण लॉकडाउन के बंधन में सिमटा हुआ है अपने -अपने घरों में। कई सारे सुरक्षा के उपाय और कई सारे निर्देश समाचार, प्रेस विज्ञप्ति और सोशल साइट पे लगातार दिए जा रहे हैं और उनका पालन करने की अपील भी बार बार की जा रही है। आशा है सभी इन निर्देशों का पालन करके कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से लड़ने में सहयोग कर रहे होंगे।
  इस लॉकडाउन में समय काटना मुश्किल हो रहा था। ना जाने कैसे लोग खाली समय में फिल्में , सीरियल्स वगैरह देख लेते हैं ? हमसे तो तब तक चलचित्र का कोई भी फॉर्मेट देखा नहीं जाता जब तक कि उससे समय बर्बाद होने की स्पष्ट अनुभूति ना हो। और शायद यही कारण भी है कि हमने जितनी फिल्में परीक्षा के अवधि में देखी हैं एक साथ उतनी कालांतर में कभी देखी नहीं गई। शायद समय बर्बाद होने की अनुभूति जितनी ही तीव्र होती  है फिल्म देखने का आनंद उतना ही बढ़ जाता है। 😅
                    बहुत सारी पुस्तकें भी पढ़ डाली परन्तु जो एक बंदी बने होने की अनुभूति है ना वो जाने का नाम हीं नहीं ले रही। लेकिन इन सारी विषम परिस्थितियों के मध्य कुछ सुखद परिवर्तन भी है जो पुरे पृथ्वी को फिर से सुजलां सुफलां बना रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि प्रकृति स्वयं को तरोताजा कर रही है। चाहे अंटार्कटिका के ऊपर का ओज़ोन परत हो या बड़े शहरों का प्रदूषण, सब के सब अपने आप ही सही हो रहे हैं। कुछ दिन के लिए हीं सही पर आप पक्षियों की चहचहाट सुन सकते हैं। विडम्बना हीं है कि जिन पक्षियों के सम्मिलित स्वर-कलरव को कोलाहल की उपमा दी जाती थी साहित्यों में ,आज उन्हें सुन पाना भी विचित्र कल्पना प्रतीत होती है। वैसे इस लॉकडाउन में एक और अच्छी  बात हुई है कि  सब अपने पुराने भूले बिसरे दोस्तों से बात कर  रहें हैं। उन पलों को याद कर रहे हैं जिन पलों को ठहर के याद कर पाना अभी की भागदौड़ वाली व्यस्तता में असंभव ही था। और भला मैं कैसे ऐसे  अवसर को चूक जाता। ये पल तो ऐसे हैं जैसे मैं अपने डायरी के पन्नों में संजोये पलों को फिर से जी रहा हूँ कुछ रिमिक्स के साथ।  😃 इसी कड़ी में मेरी बात अपने सबसे पुराने दोस्तों से हुई। बात के क्रम में हमारे शत्रुघ्न आचार्य जी (प्रारंभिक आचार्य जी गणों में से एक ) भी हमसे कांफ्रेंस कॉल पे जुड़ गए। और फिर बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ वो बहुत ही प्यारा था। गर्व भी है किअरेराज के उस सरस्वती शिशु/विद्या मंदिर से शुरू हुए कुछ रिश्तें आज भी ह्रदय में स्पंदित होते रहते हैं। और सच कहूं तो दिल तो मेरा पुरे अरेराज के लिए ही धड़कता है। अरेराज वो छोटा सा शहर है जहाँ मेरा बचपन गुजरा है। बहुत कुछ दिया है इस छोटे से शहर ने और मेरी बहुत सारी यादें समेटे हुए है अंचल में अपने। वैसे तो औरो के लिए अरेराज केवल वो दिव्य-स्थल मात्र है जहाँ बाबा सोमेश्वरनाथ (भगवान् शिव ) विराजते हैं और उनके कष्टों का निवारण करते हैं। परन्तु मेरे लिए अरेराज की परिकल्पना केवल एक भूगोल की सीमाओं में परिभाषित शहर मात्र नहीं रहा बल्कि बाबा सोमेश्वरनाथ की कृपा  की तरह शब्दों की सीमाओं से परे है। ऐसी ही कुछ अनुभूति मेरे समकालीन मित्रों की भी होगी अरेराज के बारे में। उनका अपना अरेराज जो शायद मेरे अपने अरेराज से अलग ही हो। वैसे भी ये सब तो छोटी छोटी दैनिक घटनाओं की स्मृतियों से उपजे अनुभवों का खेल है मात्र। 
                      इस  परिवर्तन के युग में जब हर चीज तेजी से बदलती जा रही है तो मैंने सोचा क्यूँ ना अपने अरेराज को शब्दों के बैसाखी के सहारे जीवित रखा जाये। शायद मेरे अरेराज में किसी को अपने अरेराज की झलक मिल जाये या अपने उस जगह  की यादों को फिर से याद करने की प्रेरणा मिल जाये जहाँ बचपन गुजरा हो।
                  अरेराज से मेरे पहले परिचय का विवरण मेरी माता जी की बातों से मिला मुझे जो कि मेरे जन्म के समय की एक छोटी सी घटना है जब मेरा छठियार होना था। हमारे यहाँ बच्चे के जन्म के छठे दिन बाद उसके जन्म की खुशी में सभी शुभचिंतको को आशीर्वाद देने लिए आमंत्रित करते हैं और सारे अतिथि आशीर्वाद और उपहार देते हैं शिशु को। और वो छठियार ऐसा पहला अवसर हुआ होगा जब मेरे शिशु मन पे अरेराज के विशाल ह्रदय की अनुभूति की तरंगें अंकित हुई होंगीं । एक छोटे से शिशु को अपना बनाने के लिए पूरा अरेराज ही तो उमड़ आया था। आशीर्वाद रूपी उपहार इतना कि कपड़ो से पूरा एक कमरा ही भर गया था और  कुछ तो कहते हैं कि उस समय पूरे अरेराज में बच्चों के कपड़े हीं खत्म हो  गए थे। हो सकता है ऐसा सौभाग्य सबको ना मिला हो लेकिन इस बात से तो कोई इंकार कर ही नहीं सकता कि उस समय सभी सब की खुशियों में शामिल होते थे और हम 90s  के जन्मे बच्चों को प्यार विशुद्ध और ज्यादा लोगों से मिला है। शायद ये भी एक बहुत बड़ा कारण है कि हम आजकल के बच्चों से कम आत्मकेंद्रित हैं।
                    वो समय था जब अभी विज्ञान धीरे धीरे किताबों और अविष्कारों की रहस्यमयी दुनिया से आगे बढ़कर छोटे छोटे शहरों और गाँवों की सीमाओं में प्रवेश कर रहा था। जब टीवी ब्लैक एंड वाइट में भी बड़े चाव से देखी जाती थी और रेडियो पटना और विविध भारती के सारे कार्यक्रम की समयसारणी कंठस्थ होती थी सबको। बिजली की समस्या थी उस समय पर फिर भी 'श्री कृष्णा ' (दूरदर्शन पे आने वाला एक सीरियल, 1993 -96 ) देखने के लिए बैट्री फुल चार्ज करके रखा जाता था। जमावड़ा सा एक लग जाता था शाम में घर पर और ये मेरी अरेराज की  पहली यादों में से एक है। पहली यादों में सुबह सुबह सामने की मिठाई दुकान से 1₹ में 2 जलेबियाँ लेना, घर में पहला गैस सिलिंडर आना और पूनम बाल विद्या मंदिर में प्रतीक (मेरा अनुज)का मेरे लिए पेंसिल लेकर आना भी शामिल है। हमारा परिवार उस समय अरेराज के एक तरह से केंद्र में ही रहता था, मंदिर से पास और अरेराज बाजार के मध्य। मेरे लिए अरेराज स्टेट बैंक के पास का चौक ही आखिरी सीमा हुआ करती थी और वही चौक से बायीं तरफ  जाती थी एक सड़क अरेराज अस्पताल  की तरफ और वही पे था मेरा छोटा सा स्कूल इस्कूल, पूनम बाल विद्या बिद्या  मंदिर। उस समय किंडर गार्डेन जैसी किसी व्यवस्था की कल्पना भी हमारे यहाँ किसी ने नहीं की होगी और छोटे बच्चों को स्कूल दर्शन कराने का जिम्मा बड़े भाइयों और बहनों  पे ही होता था। वैसे तो जहाँ तक मुझे ज्ञात है बड़ी बहनें तो बड़े प्यार से अपने छोटे भाई-बहन को ले जाना पसंद करती थीं पर बड़े भाइयों की अलग ही कहानी थी। घर पे हजारों बहानें बनाते थे ना ले जाने के और उनका कोई असर होता ना देख के महाभारत शुरू करते थे और फिर मार खा कर सुबकते हुए लेकर जाते थे छोटे को। इसी परिपाटी को ह्रदय से निभाते हुए मैं भी अपने छोटे भ्राता प्रतीक को स्कूल लेकर एक बार गया था। घर से स्कूल की दूरी थोड़ी ज्यादा थी बच्चों के हिसाब से और रास्ता भी सीधा सा नहीं था पर फिर भी कैसे उसने रास्ता याद कर लिया था सबके समझ के बाहर था। तो अब सीधे घटना की कहानी पे आते हैं। उस समय पहली कक्षा में पढता होऊंगा और एक बार मैं पेंसिल घर पे भूल गया था। प्रतीक भाईसाहब को ये बात पता चल गई और उसी समय हमारी माता जी ने उसे कुछ सामान लाने के लिए पैसे दिए और वो उन पैसों से पेंसिल खरीद कर निकल गया मुझे पेंसिल देने मेरे स्कूल की तरफ। जब तक वो पहुँचता तब तक हमारी छुट्टी हो गई थी और मैं रास्ते में ही मिल गया उसे, वो शाखा का खाकी पैंट पहने एक हाथ में अच्छी पेंसिल और दूसरे हाथ में चबाई हुई पेन्सिल लेकर आ रहा था। मुझसे पहले मेरे साथ के बच्चों ने देख लिया था और जब उन्होंने बताया मैं उसपे बहुत नाराज हुआ था और रोने रोने को हो गया था। उसे लेकर घर आ कर बहुत लड़ा था मैं माता जी और छोटे चाचा जी से और बोला था कि इसने मेरी इज्जत की  बजा दी दोस्तों के सामने। (छोटा था तो क्या इज्जत तब थी अपनी 😅😅). अभी जब भी सोचता हूँ तो लगता है कि
                इसी अरेराज के साथ के गुजरते लम्हों में पले बचपन की यादों मे अगर शक्तिमान की बात ना हो तो फिर बेमानी होगी । शक्तिमान देखने के लिए हम सारे बच्चे पागल रहते थे उस समय तो, और प्रोग्राम के समय पे तो हम बच्चों के साथ मानो पूरा अरेराज थम जाता था । बीच में बिजली कट जाने की स्थिति में बैट्री तैयार रखा जाता था ताकि हम देख सके । एक बार मुझे मेरे आचार्य जी ने बताया कि विश्वास जिंदगी में सबसे बड़ी चीज है । अगर विश्वास हो तो आदमी कुछ भी कर सकता है, कुछ भी प्राप्त कर सकता है । ये वो समय था जब बिहार अपने गड्ढे वाले सड़कों और लचर एवं लाचार बिजली व्यवस्था के वजह से ही पहचाना जाता था । ऐसे ही एक समय बिजली चली गई और हम बच्चे शक्तिमान देख रहे थे । मुझे विश्वास वाली बात याद थी और मैंने बोलना शुरू करा कि मुझे विश्वास है कि बिजली आएगी बिजली आएगी बिजली आएगी । आप शायद विश्वास न करो लेकिन बिजली आ गई और फिर थोड़ी देर बाद चली भी गई । मैं फिर शुरू हो गया बिजली आएगी मुझे विश्वास है बिजली आएगी और फिर से बिजली आ गई थोड़ी देर के लिए । ये क्रम एक बार और चला, बिजली गई मैंने राग अलापा विश्वास का अपने और बिजली आ गई । अभी सोचता हूँ तो सुखद आश्चर्य होता है उस घटना पे और उस संयोग पे । ऐसा लग रहा था कि बिजली विभाग एक बालक के अभी अभी उपार्जित विश्वास की शक्ति में उसके विश्वास को दृढ़ करने में लगा हुआ था । काश उस बालपन वाले विश्वास को फिर से मैं जागा पता अपने अंदर । इसमें सबसे बड़ी बात ये रही कि ये विश्वास वाला राग मैं दुकान पे आकर आलाप रहा था और वहाँ कई सारे लोग थे जिन्होने सुना था परंतु किसी ने उपहास नहीं उड़ाया । ये अरेराज का मुझे सबसे बड़ा आशीर्वाद था मेरे लिए, मेरे विश्वास के लिए और शायद उसी विश्वास के नींव के सहारे खड़ा हूँ मैं आज भी ।
              इन्हीं चहकते पलों में फिर काली घटा आई कारगिल युद्ध का जिसने पूरे देश को ही झकझोर दिया था । हमारा अरेराज भी इससे अछूता नहीं था । आज भी याद है मुझे वो पल जब सभी सुबह सुबह अखबार का इंतजार करते रहते थे । पूरा शहर ही मानो बैठ जाता था बाहर सड़क पे अखबार के पन्नों को उलटे पलटते हुए । दुश्मन देश के बंकर के तबाह होने की खबर पे तालियों की गड़गड़ाहट गूंज जाती थी और अपने देश के सैनिकों के बलिदान पर पूरे अरेराज को सिसकते सुना है मैंने । ये देशभक्ति की ऐसी प्रारम्भिक शिक्षा थी जो किसी किताब में पढ़ कर या किसी से सुन कर नहीं अपितु उस पल में समाहित कर अरेराज ने सिखाया था । और ऐसे ही अनेकों अरेराज के अनगिनत साकेतों ने देशभक्ति सीखी होगी, देख कर, उन पलों की जीकर । शायद यहीं कारण भी है कि जब प्रधानमंत्री जी देशवासियों से आग्रह करते हैं देश के आत्मविश्वासको बढ़ाने के लिए तो पूरा देश ही जाग्रत हो जाता है 5 मिनट की करतल ध्वनि और 9 मिनट की दीपमाला को जलाने के लिए । और ये सारी एकजुटता और संकल्प शक्ति कहीं न कहीं, किसी न किसी अरेराज की गोद में पल्लवित देशभक्ति के बीज का ही फल है ।
             अरेराज की महिमामंडन की बात हो और वो भी बचपन की यादों के सहारे तो उसमें छठ पर्व का उल्लेख ना करना तो अत्यंत बेमानी होगी। और हो भी क्यूँ ना, आखिर शिव मंदिर के प्रांगण में गन्नों के खड़े झुरमुटों के नीचे रखे असंख्य दीपों के प्रकाश से जगमगाता प्रांगण अलौकिक ही जान पड़ता है। वैसे भी बिहार के किसी भी नगर-गाँव की बात की जाए तो छठ पर्व के बिना वहाँ का इतिहास थोड़ा अधूरा सा ही रहता है। अरेराज की छठ पूजा और बचपन में लिखने की थोड़ी कोशिश की है इसलिए यहाँ बात करते हैं दशहरे की । दशहरे और अरेराज का बहुत प्रभाव रहा है मेरी जिंदगी में और ये सब शुरू हुआ दादा जी के साथ दशहरे में रात को रामायण देखने जाने से । छोटा था तब अरेराज में 2 जगहों पे भव्य दुर्गा माताजी स्थापित की जाती थी, एक शिव मंदिर के पास और एक बड़े चौक के पास । और शिव मंदिर के पास वाले पंडाल पे नवरात्रि में प्रत्येक रात्रि काल में रामायण के एपिसोड्स चलते थे । रमानन्द सागर कृत रामायण तो मैंने वही देखा था सबके साथ नीचे बिछे त्रिपाल/चटाईयों पे बैठ कर माँ भगवती के सान्निध्य में । विश्वास कीजिये आज भले ही रामायण का प्रसारण दुबारा किया जा रहा है परंतु वो सारे बाजार के लोगों के साथ बैठ के देखने की तो बात ही कुछ और हुआ करती थी । हो सकता है कि ये मात्र मेरे मन में उपजी और जमी हुई बात हो क्यूंकी हम केवल उन्हीं वस्तुओं की इज्जत करते हैं जिन्हें पाने में थोड़ी मेहनत करनी पड़े । और रामायण देखने के लिए तो कई बार मैं घर से अकेले बिना बताए निकल जाता था । नहीं नहीं अकेले घर से बिना बताए निकल जाना मेहनत का काम नहीं है, पता है मुझे । लेकिन तब तो जरूर कुछ श्रेय मिलेगा जबकि कोई बहुत ही डरपोक हो (भूत प्रेत से ) और तब भी रात मे निकाल जाए देखने और वो भी तब जब नवरात्रि में और ज्यादा सावधान रहने को घरवाले कहते हो। खैर दुबारा जब देखने बैठा रामायण अभी इस लोकडाऊन में तो पहली बार में ही सारे रोंगटे खड़े हो गए और मन भावविव्हल हो गया था । पता नहीं कुछ तो था ऐसा जो मुझे वापस उस अरेराज की नवरात्रि से जोड़ के मुझे बचपन की यादों में लपेट के मेरी आँखों को जलमय कर रहा था ।
                 इन्हीं सब बातों के मध्य कब मैं सरस्वती शिशु /विद्या मंदिर मे पढ़ते हुए 10th में आ गया पता हीं नहीं चला । अरेराज का पहला विद्यालय जहां सीबीएसई बोर्ड से पढ़ाई प्रारम्भ हुई थी और हम थे अरेराज के पहले बच्चे जो 10th सीबीएसई से दे रहे थे । आज भी अच्छे से याद है मुझे वो समय जब हमारे साथ साथ पूरा अरेराज ही मानों पढ़ाई करने में लगा था । सबकी नजरें लगी थी हम पे और सब सहयोग कर रहे थे हमारी पढ़ाई में अपने अपने तरफ से, अपने तरीके से। कुछ ने ठेका ले रखा था कि कहीं भी मैं घूमता हुआ दिख जाऊँ तो उसकी खबर पिताजी तक तुरंत पहुँच जाए और मेरी अच्छी खातिरदारी हो तो कुछ ने मुझे लगातार आगे के रास्ते के बंद हो जाने का डर वक़्त बेवक्त दिखाते रहने की ठान रखी थी । एक महाशय ने तो यहाँ तक कह रखा था कि सारे नोट्स छोटे साइज़  की कॉपी पे ही बनाना ताकि अगर नकल हो तो आराम से नकल की जा सके (😁😁)। कुछ लोग तो इन सब चीजों से दो कदम आगे बढ़ कर अपने हस्तरेखा विज्ञान की विद्वता मेरा हाथ देख कर प्रदर्शित करते थे या या माता श्री को टोटका वगैरह बताना शुरू कर दिया था । ये सब सुनने में हो सकता है थोड़ा अजीब सा और दक़ियानूसी सा लग रहा हो लेकिन ये सब अरेराज का प्यार था मेरे लिए । जिसे जो तरीका समझ आया उसने उस तरीके से ये जताने की कोशिश की कि वो सब मुझे और मुझ जैसे बाकी अरेराज के बच्चों को सफल होते देखना चाहते हैं । वैसे सच बताऊँ तो एक टोटका मैंने प्रयोग भी किया था वो दही - चीनी वाला जो शायद सब हीं करते हैं । इस बोर्ड परीक्षा के भारी और बोझल माहौल में विद्यालय के आचार्य जी लोगों का सहयोग और निर्देशन अप्रतिम था । और इस स्वार्थविहीन सहयोग की कृपा हम सभी बच्चों पे लगातार बनी रहे इसके लिए पूरा अरेराज हीं समर्पित हो गया था कृतज्ञता स्वरूप उन सभी गुरु जनों को चरणों में । आज का और औरों का पता नहीं परंतु मेरा अरेराज जानता था कि कैसे विद्वता की महत्ता का सम्मान करना चाहिए ।बोर्ड परीक्षा के बाद मैं आगे की पढ़ाई के लिए गोरखपुर चला गया था और जब परीक्षा का रिज़ल्ट आया तो मैं वही पे था । उस समय वहाँ अरेराज में इंटरनेट शायद कहीं नहीं था और रिज़ल्ट आया तो सबके रिज़ल्ट का उनके मार्क्स का एक ही स्रोत बना और वो था मैं, साकेत । विशाल भैया का मोबाइल 2 दिनों तक मेरे पास ही रहा था ।  दोस्तों के उनके नंबर बताने और लोगों की बधाइयों को स्वीकार करने में दो दिन लग गए पूरे पूरे । ऐसा लग रहा था कि पूरा अरेराज हीं हम सब बच्चों के परीक्षाफल की खुशियाँ मना रहा था । जहां तक मुझे याद है ऐसा पहली बार था जब पिताजी ने मेरे मुझे धन्यवाद कहा था। पिताजी ने धन्यवाद क्यूँ दिया मुझे सच पूछो तो नहीं पता परंतु वो शब्द मेरे लिए इस बात के द्योतक थे कि पिताजी प्रसन्न थे और गौरवान्वित भी मुझपे उस वक़्त । फिर तब से अभी तक लगा हुआ हूँ ऐसा कार्य करने के प्रयास में जिससे दुबारा वो शब्द सुन पाऊँ , प्रयास जारी है देखते हैं कब तक सफलता मिलती है ।
                       यही था मेरा आखिरी समय जब मैं अरेराज से बाहर निकला और फिर कभी लौट ना पाया । लेकिन आज भी जब भी अरेराज जाना होता है, अरेराज आज भी मेरे लिए वैसे ही आँचल में मेरी यादों को समेटे हुए मुझे उनके साथ अपने में समेट लेने को आतुर नजर आता है । दरअसल अरेराज से निकल गया ये कहना भी मेरा गलत ही है । भौगोलिक परिधियों के इतर आज भी अरेराज बसता है मन में तो फिर अरेराज से निकलना कहाँ ही संभव है । और ये कहना तो बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कोई भी साकेत अपने किसी भी अरेराज से कभी बाहर नहीं निकल सकता और उनका प्रेम यथावत बना रहेगा स्थान और काल से परे ।

      अगर कुछ पसंद आए तो जरूर बताइएगा। वैसे भी अरेराज और साकेत तो केवल नाम मात्र हैं जो कि शायद प्रतिनिधित्व करते हैं उन तमाम स्थानों का जहां के अनगिनत लोग शिक्षा, रोजगार या किसी अन्य कारण से चले तो जाते हैं लेकिन उनका वो बचपन वाला शहर उनकी यादों को उसी हालत में सँजोएँ के रखता है जैसे वो छोड़ के गए होते हैं और कभी उस तरफ रुख करने पे वो यादें वैसे हीं उनके सामने परोस भी दी जाती हैं । अगर आपके अरेराज से जुड़ी ऐसी कोई दिल के करीब कोई घटना हो तो बताइएगा जरूर ।
शेष शुभ ।  और हाँ #Go Corona 

Comments

  1. Apse anurodh hai ki kabhi yado ke jharokhe se apne NIT ke kalchakra ko bhi kalambaddha kiya jaye. 6 yr at NIT.

    ReplyDelete
    Replies
    1. Apke agle lekhni ke entzar me, apka padhak

      Er. Satish chaudhary

      Delete
    2. Hahaha क्यूँ नहीं मित्र तुमलोगों के साथ वाला पल भी यादगार हैं । बहुत जल्दी आपके सेवा में अति शीघ्र प्रस्तुत करूंगा ।

      Delete
  2. शब्दों को बड़े प्यार से पिरोया है आपने। दिल गदगद होगया। सच कहा आपने कोई भी साकेत किसी भी अरेराज से बाहर नही निकाल सकता
    आपकी दिल कू जाने वाली लाइन -

    "शायद मेरे अरेराज में किसी को अपने अरेराज की झलक मिल जाये या अपने उस जगह की यादों को फिर से याद करने की प्रेरणा मिल जाये जहाँ बचपन गुजरा हो।"

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद अनुज मित्र! :)

      Delete
  3. Aap ne phr se aapni kalam se dil ko chhu liya aap k har lekh ka hame besabri se intazar rahta hai

    ReplyDelete
    Replies
    1. शत्रुघ्न भाईसाहब ऐसे ही प्रेरणादायी शब्दों से मनोबल बढ़ते रहिए बस इतनी प्रार्थना है । धन्यवाद मित्र! :)

      Delete
  4. Adyabhut,apratim,uttam....aapki kalam ne to aaj fir areraj ko jga diya.han wahi areraj jo aaj v aapke yadon ko sanjoye ek gahari aanand ki anubhuti kr rha h....really aapne kafi achhe andaaz me areraj ka wakhan kiya. Sach kahun to ye areraj na jane kyun mujhe v achha lgne lga h....😊😊😊😊

    ReplyDelete
  5. धन्यवाद! मैं सुनिश्चित करूंगा कि मेरे अरेराज तक आपकी बातें अवश्य पहुँच जाए और यकीन कीजिये अरेराज आपके इस लगाव से जनित अनुभूति से पिरोये हुए शब्दों के लिए कृतज्ञ रहेगी । :)

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

2020 और अमावस की रात

An Evening with Her

Memory Power Tips