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Showing posts from 2019

Raksha Bandhan and TVF's Tripling

It's little bit odd to write a blog seating at the Independence Day of this year at noon. And title of this blog is just too stupid to even mention that to anyone. But I am writing it anyway. It's Rakshabandhan today and I watched TVF's Tripling, a story of three siblings who were coerced to take a road trip away from their respective lives and de facto became helping shoulders to each other. And this awakened my long lost secluded ghost of homesickness again. Now I just want to go home to my sisters and talk to them and listen to them. Although telephonic conversation did happen in morning but still I miss them a lot. Seems at the day like Rakshabandhan just calling your sisters couldn't get through you out from your nostalgia.   The story of the web series tripling starts when the eldest brother comes to the youngest one to seek refuge after his divorce in USA. The eldest brother, Chandan, always remains serious and too stressed while the youngest one, Chitvan, ...

कल्पना की कल्पना (तृतीय खण्ड)

 पिछले पटकथा में कल्पना के लिए मेरे ह्रदय में प्रेम पुष्प अंकुरित होने की कथा का विवरण था। अब बारी थी मित्रों को ये बताने कि कैसे हमारे मध्य  प्रेम की बेलें पल्लवित हुईं और लिपटतीं गईं हम दोनों से हीं। वो कहते हैं ना प्रेम आदमी को दीवाना सा बना देता है और उसकी हरकतें सामान्य जिंदगी में पागलपन की सीमा को छूने के लिए विकल रहती हैं। तो मैंने भी जो दूसरी कहानी सुनाई वो कुछ ऐसा ही थी जिसे उस कालखंड में पागलपन ही करार दिया जाता। पागलपन से मेरा मतलब यहाँ ये है कि ऐसी हरकते करना जो दोस्ती से कुछ ज्यादा गरिष्ठ और प्रगाढ़ प्रतीत हो सभी को 😅। तो आता हूँ कहानी पे।          "बात तब की है जब हम दोनों 7 वीं कक्षा में थे। हिंदी की कक्षा चल रही थी और उस दिन हमें हमारे प्रधानाचार्य जी हीं पढ़ा रहे थे। " इतने में मेरे एक मित्र ने टोका कि हिंदी की वेला पढ़ने के लिए होती थी तुम्हारे यहाँ या ये इश्क़ लड़ाने के लिए ? पिछली कहानी भी हिंदी की ही घंटी में हुई थी। फिर मैंने उसे हल्की झिड़की देते हुए बताया कि केवल हिंदी की वेला ही ऐसी घंटी होती थी जब हम छात्रगण भी ...

भाषा और रीडिंग स्पीड

वैसे तो आजकल कुछ पढ़ने के लिए समय निकालना बहुत ही मुश्किल जान पड़ता है  और तब तो और मुश्किल हो जाती है जब आपके पास NETFLIX और AMAZON PRIME  जैसे सेवा प्रदाता उपलब्ध हों। आखिर GAME OF THRONES को कौन पढ़ने की सोचता है जबकि उसके पास उसे देखने का विकल्प हो। पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें सनक रहती है पढ़ने की और जब पूरी दुनिया SACRED GAMES  देखने में व्यस्त रहती है तब वो अकेले उसे अपने KINDLE  में पढ़ते हुए पाए जाते हैं। 😅 ना ना, मैं  नहीं शामिल हूँ ऐसी महान आत्माओं के वर्ग में। मुझे तो बहुत पसंद है ये SHOWS। परन्तु किसी लेखक की कहानी पढ़ने में और उसे देखने में बहुत अंतर है। पढ़ते समय आप स्वतंत्र होते हैं अपने प्रिय चरित्रों की सजीव कल्पना के लिए  जबकि उस कहानी के आधार पे बने धारावाहिक में ऐसी स्वतंत्रता की अपेक्षा करना  बचकाना हीं है। आर. आर. मार्टिन ने लिखा है, " A reader lives a thoousand lives before he dies. The man who never reads lives only one. "  तो फिर मार्टिन साहब के बातों में आकर मैंने एक और जिंदगी जीने की आशा में  SACRED GAMES पढ़ा (?...

शोकाकुल प्रेम

कभी कभी ऐसी परिस्थिति बन जाती है जिसमें निर्णय लेना अत्यंत ही दुष्कर होता है। और बात जब जिंदगी में प्रेम और उससे जुड़े भावनात्मक पक्षपातपूर्ण मामलों का हो तो फिर सर्वत्र अन्धकार ही व्याप्त होता प्रतीत होता है। यहाँ प्रेम से पल्लवित भावनाओं को पक्षपातपूर्ण कहना शायद अतिशयोक्ति हो सकती है लेकिन प्रायः प्यार में अंधे बने हुए लोग मिल ही जाते हैं। सभी ने अपने अपने पैमाने बना रखे हैं सच्चाई और विश्वसनीयता को परखने के और सभी को अपने पैमाने पे रत्ती भर का भी संदेह नहीं होता। कुछ प्यार को साथ बिताये हुए पलों के साथ जोड़कर तौलते हैं तो कुछ आपस में एक दूसरे के लिए सम्मान और समझ को असली मानक बताते हैं। वैसे पैसे को अधिकतर इस नाप जोख के मानक से बाहर ही रखा जाता है परन्तु इसका योगदान किसी भी तरीके से अनदेखा करने लायक नहीं है।  हालाँकि सत्य है कि जिस चीज का स्वयं अनुभव ना हो उसके बारे में टिपण्णी करना उच्श्रृंखलता या मात्र बचकानी हरकत के अलावा कुछ नहीं। परन्तु भले ही मैं कभी किसी के साथ स्वयं को जोड़ नहीं पाया लेकिन सामाजिक परिवेश में हो रहे सामान्य व्यावहारिक क्रियाकलापों का अवलोकन भलीभांति किया...

कल्पना की कल्पना (द्वितीय खंड)

राफेल और सवर्ण आरक्षण के शोर के मध्य भी कल्पना की कल्पना का प्रथम खंड इतना पढ़ा और सराहा जायेगा, ये कल्पना कभी मन में आई ही नहीं पाई थी। तो जिसकी कल्पना ही न हो मन में और वो घटित हो जाये फिर  शब्द जुड़ हीं नहीं पाते वाक्य-निर्माण के हेतु। ऊपर से बहुत सारे मित्रों के प्रशंसा के शब्दों ने मन में उनके अपेक्षाओं पे खरा ना उतर पाने का भय भी अंकुरित कर दिया है। अब तो असमंजस है कि मित्रों को उनके प्रशंसात्मक शब्दों के लिए धन्यवाद दूँ या दोषारोपण करूँ उस भय के लिए (😅😅😈)। खैर इन उदार वचनों  के मध्य एक मित्र ने कहा, "कुछ कहानियाँ हम किसी को सुना नहीं सकते और कथाकार ऐसी कहानियों को काल्पनिक कथा के आवरण में प्रस्तुत कर देते हैं और साकेत शायद तू भी इस कहानी के सहारे उन सच्ची कहानियों को  दुबारा जीने की कोशिश कर रहा है।" इतनी गंभीर बात पे क्या ही कहता मैं ? बस इतना कह पाया कि अगले भाग को पढ़ फिर उसके बाद अपने विचार देना। तो आते हैं असली कहानी पे।                   गोरखनाथ मंदिर में तालाब के किनारे सभी दोस्तों की कहानियां मुख्यतः ३ ...

कल्पना की कल्पना (प्रथम खंड)

कल बहुत सालों बाद एक गोरखपुर के मित्र से मुलाकात हुई। हमने साथ-साथ सरस्वती शिशु मंदिर वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, गोरखपुर में 11th और 12th की शिक्षा प्राप्त की थी। कुछ सामान्य अभिवादन और हाल चाल के बाद भाईसाहब ने पूछा कि साकेत बता भाभी  कैसी है ? मैंने सपाट शब्दों में रटा रटाया वाक्य दुहराया  कि भाई कोई नहीं है अभी जिंदगी में मेरी और जब होगी पक्का सबसे पहले तुझे ही बताऊंगा। और क्या ही कहता मैं? वैसे बहुत दिनों बाद किसी ने ऐसा प्रश्न पूछा था मुझसे। इंजीनिरिंग के समय अक्सर मित्रगण पूछ लिया करते थे मजाक में इस आशा में की कोई तो जीवनसंगिनी (यानि कि उनके लिए भाभी  ) साकेत ने ढूंढ ही ली होगी। खैर अफ़सोस उनके बहुत सारे टिप्स और एवरेस्ट के जैसे तानों के बाद भी मेरा कुछ नहीं हो सका। अब तो मेरे इंजीनियरिंग वाले दोस्त भी ' भाभी कैसी है ' से ऊपर उठ कर सीधा ' शादी कब कर रहा है' पूछते हैं। ऊपर से एक दो मिर्ची और मल जाते हैं कान पे कि कब तक पढता रहेगा,बुड्ढा हो रहा है। खैर वापस आते हैं गोरखपुर वाले मित्र की कहानी पे। भाईसाहब ने कहा कि अरे कैसी बातें कर रहा है, थी तो तेरी एक स्कूल म...